Thursday, August 24, 2017

सिमटी सी ये दुनिया

बात है तब की,जब हम थाइलैंड व सिंगापुर गए थे। मेरी पहली विदेश यात्रा होने के कारन् तरह तरह की आशंकाओ के साथ उत्साह भी मन में था।सिंगापुर में एक टिपिकल पर्यटक वाला अनुभव लेने के बाद,अब हम बैंकॉक में एक लोकल बाज़ार मे यूँ ही फुर्सत में चहलकदमी कर रहे थे।बच्चे घड़ी, जैकेट्स और इलैक्ट्रॉनिक्स देखने में व्यस्त थे। मैं सोच रही थी कि अगर ये भारत होता तो न जाने कितने प्रातों के कितने हस्तशिल्प उत्पाद देखने को मिलते ! हमारे देश जैसी विविधता तो खैर कहीं मिलने से रही । इन्हीं विचारों में खोयी थी,तभी नज़र पड़ी सड़क के कोने में बैठी उस वृद्धा पर ! वो कुछ बेचने के लिये एक बोरे पर धूप में बैठी थी...पर उस भागते दौड़ते शहर में किसको पड़ी थी जो उसके तुच्छ सामान पर नज़र भी डालता! पास जाने पर पता चला कि वह खुद के पेन्ट करे हुए सूखे फूल बेचने के लिए बैठी हैं ,उसे इग्लिश समझ नहीं आती थी, बड़ी मुश्किल से इशारों के आदान प्रदान से मैंने उससे चार गुच्छे फूलों के खरीद कर मूल्य चुकाया। बहुत देर तक वो उन पैसों को हाथ में लिए देखती रही और फिर बार -बार सहेज कर रखती रही। उसकी विवश आँखों में चमका अविश्वास भरा सुख मेरी नज़र से छिप न पाया ।अपने परिवार से उपेक्षित, इस उम्र में भी संघर्षरत ,उसके हालात किसी देश या विदेश कहलाने वाली सीमाओं से परे थे।मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि मानवीय सम्वेदनाएँ तो सब जगह एक ही हैं और रिश्तों की अबूझ पहेली भी एक ही ! आज भी इस घटना को याद करके मन का कोई कोना भीग जाता है । हाँ , आज भी वो फूलों का गुच्छा मेरे घर के शो केस में सजा है ,और किसी भी महँगे मॉल से खरीदे शो पीसेज़ को मात देता है !